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बीस वर्षों के बाद – क्या यही है अपने सपनों का उत्तराखंड?

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क्यों है उत्तराखंड निराशा के भंवर में? पढ़िए राज्य स्थापना दिवस पर डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट का लेख।

लेखक: डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट

उत्तराखंड की महान जनता ने बीस वर्ष पहले न जाने कितने बलिदान और संघर्ष के बल पर नए राज्य का मार्ग पहले उत्तरांचल और फिर उत्तराखंड के रूप में प्रशस्त किया था। लेकिन जिन लोगों ने इस राज्य को जन्म देने की लड़ाई लड़ी, आज उन्हें ही अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

उत्तराखंड देश का ऐसा पहला राज्य बन गया है जिसके मुख्यमंत्री के विरुद्ध उच्च न्यायालय को कथित भ्र्ष्टाचार मामले में केंद्रीय जांच ब्यूरो से जांच कराने के आदेश देने पड़े। हालांकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त आदेश को सुनवाई तक स्थगित कर दिया है। केंद्र व राज्य में एक ही पार्टी की सरकार होने के लाभ गिनाकर उत्तराखंड की भोली भाली जनता से वोट हासिल कर सत्ता की कुर्सी हासिल करने के बाद दोनों ही सरकारों ने उत्तराखंड की जनता को निराश किया है क्योंकि उत्तराखंड के आंदोलनकारियों व उत्तराखंड की जनता के सपनों का राज्य बीस वर्ष बीतने पर भी आज तक नहीं बन पाया है।

पहाड़ से रोज़गार के कारण युवाओं का पलायन, प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए कोई ठोस व्यवस्था का न होना, स्वास्थ्य सेवाओं का लचर रहना, दिल्ली-हरिद्वार होकर देहरादून जाने वाला राजमार्ग का सन 2010 से आज तक भी फोर-लेन न बन पाना और अधर में लटके रहना सरकार की विफलता का प्रमाण है। आज उत्तर प्रदेश की सड़कें बेहतर हैं तो उत्तराखंड की सड़कों में गढ्ढे ही गढ्ढे है।

उत्तराखंड बने बीस साल पूरे हो चुके है और इक्कीसवां साल शुरू हो चुका है लेकिन उत्तराखंड के लोगों के सपने का उत्तराखंड सँवरना तो दूर उनकी मूल-भूत समस्याएं तक आज तक हल नहीं हो पाई हैं। जल, जंगल, ज़मीन पर अपना हक पाने के लिए उत्तराखंडी पहले भी संघर्ष कर रहे थे, आज भी संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन उनकी सुनवाई न पहले हो पाई और न ही आज तक हो पाई है। राज्य निर्माण में पर्वतीय मूल की महिलायें अग्रणी रहीं, राज्य की मांग को लेकर उन्होंने लम्बी लड़ाई लडी। अनेक आंदोलनकारियों को इसके लिए संघर्ष करते हुए पुलिस की गोलियां खाकर शहादत देनी पड़ी। कई महिलाओं को अपनी आबरू तक गंवानी पड़ी। तब जाकर लम्बे आंदोलन के बाद 9 नवम्बर सन 2000 को उत्तरांचल यानि उत्तराखंड राज्य का जन्म हो पाया था, जो अब कमजोर राज्य के रूप मे हमारे सामने है।

राज्य बनने के बाद से बीस साल बीतने पर भी जल, जंगल, ज़मीन पर स्थानीय लोगों का हक़ नहीं हो पाया। राज्य बनने से पहले अविभाजित उत्तर प्रदेश मे यहां के पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए अलग से एक मंत्रालय हुआ करता था। लेकिन राज्य बनने के बाद हम पहाड़ के सरोकार ही भूल गए है। जल,जंगल और ज़मीन के हक़ की लड़ाई के प्रणेता किशोर उपाध्याय – जो टिहरी से विधायक, नारायण दत्त तिवारी मन्त्रीमण्डल में मंत्री और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भी रह चुके है – के द्वारा बार-बार जनसरोकारों की मांग उठाने के बावजूद आज तक कुछ नहीं हो सका है।

किशोर उपाध्याय जन मुद्दों पर सर्वदलीय सम्मेलन बुला चुके हैं जिसमें पर्वतीय क्षेत्र को वन प्रदेश घोषित कर यहां के निवासियों को वनवासी का दर्जा देने, पर्वतीय क्षेत्र में उगने वाली जड़ी बूटियों पर स्थानीय लोगों का हक़ घोषित करने, राज्य के वन व प्राकृतिक संसाधनों पर यहां के लोगों के हक़ की रक्षा करने व उन्हें पोषित करने ,राज्य के लोगों को वनवासी का दर्जा देकर केंद्र मे उन्हें नौकरियों में आरक्षण देने, वनाधिकार अधिनियम 2006 तथा जैव विविधता अधिनियम 2002 के प्रावधान राज्य मे लागू करने की मांग उठाई गई है।

इसके लिए किशोर उपाध्याय पहले प्रदेश कांगेस अध्यक्ष प्रीतम सिंह से और कांग्रेस के राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत से इन मुद्दों पर समर्थन मांग चुके है। इन मुद्दों को सरकार से जुड़े लोगों के सामने भी ले जाया गया है। चाहे सांसद अजय भट्ट हो या मंत्री मदन कौशिक, सभी ने इन मुद्दों को स्वीकारा है। लेकिन फिर भी ये मांगे यथार्थ के धरातल पर उतर कर फलीभूत नहीं हो सकी हैं। इस मुद्दे पर एक बड़े आंदोलन की दरकार है ताकि जनआवाज दिल्ली तक पहुंचे।

इस आंदोलन के सूत्रधार किशोर उपाध्याय का कहना है कि पर्वतीय क्षेत्रों में जहां संसाधनों की भारी कमी है, वहीं लोगों के घर बनाने के लिए मुफ्त खनन, घर की खिड़की दरवाजों और ईंधन के लिए सूखी लकडियां मुफ्त मे मिलनी चाहिए। साथ ही पढ़ाई व नौकरी के लिए वनवासी का दर्जा देकर आरक्षण पर्वतीय क्षेत्र को दिया जाना ज़रूरी है। यह मांगे कब फलीभूत होगी यह तो पता नहीं, लेकिन इतना जरूर है कि इन मांगो को चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष सबका समर्थन जरूर मिल रहा है।

इतना होने पर भी ये मांगे पूरी क्यों नहीं हो रही है, यह सवाल हर किसी को परेशान कर रहा है। राज्य में डबल इंजन की सरकार लाकर राज्य को भय मुक्त व भ्र्ष्टाचार मुक्त करने का दावा करने वाली भाजपा, राज्य में दो कदम आगे बढ़ना तो दूर बीस कदम पिछड गई है। राज्य में सरकार नाम की कोई चीज दिखाई नहीं पड़ती। विकास कार्य ठप्प है, अपराध सिर चढ़कर बढ़ रहे हैं, तो महंगाई की मार से आम जन परेशान है। ऐसे में राज्य स्थापना की खुशी भी कहीं दिखाई नहीं पड़ती।

पूर्व मुख्य मंत्री नारायण दत्त तिवारी ने राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देकर जहाँ राज्य को आर्थिक स्वावलम्बन के रास्ते पर ले जाने की कोशिश की थी, वहीं बीस सूत्री कार्यक्रम में उनके रहते राज्य को लगातार चार बार देशभर में पहला स्थान मिला था। लेकिन आज विकास की सोच कहीं खो गई है। राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत से विपक्ष ही नहीं सत्ता पक्ष के लोग भी असन्तुष्ट नजर आ रहे हैं। राज्य स्थापना का उत्साह ठंडा-ठंडा सा है। कुछ कोरोना के कारण तो कुछ सरकार की निष्क्रियता के चलते उत्तराखंड मायूसी व निराशा के भंवर में फंसा है। और यह हालत तब तक रहेगी जब तक कि राज्य के लोगों के सपनों का उत्तराखंड नहीं बन जाता। इसके लिए कुर्सी के बजाए जनसेवा की सोच ही कारगर हो सकती है।