पारंपरिक पर्व बूढ़ी दिवाली की धूम
अनूठी संस्कृति और परंपराओं के लिए मशहूर आदिवासी क्षेत्र जौनसार बावर में बूढ़ी दिवाली मनाने की परंपरा पूरे देश में कायम है. असल दिवाली के एक महीने बाद बूढी दिवाली मनाने की परंपरा है। यहां पांच दिनों तक इको फ्रेंडली दिवाली मनाई जाती है। इस उत्सव में पटाखों का शोर या अनावश्यक खर्च नहीं होता है। भीमल की लकड़ी की मशाल जलाकर दिवाली मनाई जाती है। मसूरी के पास बग्लो की कांडी गांव के पंचायती प्रांगण में ग्रामीण महिला-पुरुष सामूहिक नृत्य के माध्यम से लोक संस्कृति को प्रर्दषित कर रहे है। मसूरी कैंपटी बंगलो की कंडी के पास दिवाली का त्योहार खास अंदाज में मनाया गया। ग्रामीण महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा में पुरुष के साथ कदम ताल करते हुए पारंपरिक लोक गीतों में थिरकते हुए नजर आये जिसने मौजूद श्रोताओं के मन को मोह लिया।
जौनसार क्षेत्र में पुरानी दिवाली मनाने के लिए बाहरी राज्यों व प्रदेशों में काम करने वाले प्रवासी भी लौटने लगे हैं. त्योहार को लेकर लोगों में खासा उत्साह है। प्रवासियों की वापसी से गांवों में खुशी का माहौल है. इस अवसर पर गांवों में भांड का आयोजन किया जाता था, जिसे देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन के रूप में दर्शाया जाता है। इसमें बाबई घास से बनी एक विशाल रस्सी का प्रयोग किया जाता है। इसकी विशेषता यह है कि रस्सी बनाने के लिए इस दिन बाबई घास को काटकर बनाया जाता है। मान्यता के अनुसार रस्सी बनाकर स्नान करने से विधिवत पूजा की जाती है। कोटी, खरसोने, मोगी, भटोली, सांजी, बंगसील आदि गांव विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं, जिन्हें देखने दूर-दूर से लोग आते हैं।
इस त्योहार को लोग बड़े ही धूमधाम से मनाते हैं, जिसमें स्थानीय फसलों के व्यंजन भी बनाए जाते हैं. रात के समय सभी पुरुष होला जलाते हैं और मशाल जलाने के लिए ढोल की थाप पर नृत्य करते हैं, जिसके बाद दिवाली के गीत गाने के लिए वापस गाँव आते हैं, जबकि दूसरे दिन गाँव के पंचायती प्रांगण में अलाव जलाया जाता है।
दीपावली के ठीक 30 दिन बाद जौनपुर, रेवेन में मनाई जाने वाली पहाड़ियों की मुख्य पुरानी पहाड़ी दीपावली की शुरुआत असक्य पर्व से हो गई है. इसमें पहाड़ी उत्पादों जांगोरे से बने स्टार्च को दही के साथ सेवन किया जाता है। इस दिवाली का मुख्य पकोड़िया पर्व आज मनाया जा रहा है. इसमें उड़द की दाल के पकौड़े बनाए जाते हैं. इस दीपावली की मुख्य होली रात में खेली जाती है, जिसमें गांव के बूढ़े, जवान, बच्चे सभी नए कपड़े पहनकर होला खेलने जाते हैं। होलीयत के बाद गांव के लोग गांव के पांडव कक्ष में देर रात तक नाचते-गाते हैं।
दिवाली मनाने की पुरानी पहाड़ी परंपरा
दिवाली मनाने के बाद पहाड़ में पुरानी दिवाली मनाने के पीछे लोगों के अलग-अलग तर्क हैं। आदिवासी अंचल के बुजुर्गों की माने तो पहाड़ के सुदूर ग्रामीण अंचलों में भगवान श्रीराम के अयोध्या आगमन देर से होने के कारण लोग पहाड़ी बूढ़ी दिवाली एक माह बाद मनाते हैं. जहाँ अधिकांश लोग जौनसार-बावर एवं बिनहर कृषि प्रधान क्षेत्र मानते हैं वहीं यहाँ के लोग खेती के कार्य में काफी व्यस्त रहते हैं। जिसके चलते वह इसके एक महीने बाद ही पुरानी दिवाली पारंपरिक तरीके से मनाते हैं। यहां पहले दिन छोटी दिवाली, दूसरे दिन रणदयाल, तीसरे दिन बड़ी दिवाली, चौथे दिन बिरूडी और पांचवें दिन जंडौई मेले का समापन दिवाली के साथ होता है।