इंटरनेट मीडिया से हो रहे चुनाव प्रचार में ग्रामीण भारत का एक बड़ा वर्ग अछूता
देश के पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं और कोरोना की वजह से न तो रैलियां हो रही हैं और न ही रोड शो के जरिये राजनीतिक दल जनता के बीच शक्ति प्रदर्शन कर पा रहे हैं। लगभग सारा चुनाव प्रचार डिजिटल प्रारूप में सिमट गया है। चुनाव आयोग की पाबंदी के कारण राजनीतिक दल और नेता इंटरनेट मीडिया के विभिन्न मंचों के जरिये जनता के बीच अपनी पैठ बनाने में लगे हैं। इन्हीं मंचों पर अपनी प्रचार सामग्री को परोसकर पार्टियां चुनाव में अपनी स्थिति को मजबूत करने में जुटी हैं।लोकगीतों के रूप में अपने अपने प्रचार गीत बनवाकर तमाम राजनीतिक दल इंटरनेट मीडिया के मंचों पर उन्हें साझा करके जनता के दिलोदिमाग पर छा जाने को बेताब हैं। इस लड़ाई में आगे निकल जाने की स्पर्धा लगभग सभी दलों में दिखाई दे रही है। ऐसे में यहां यह प्रश्न प्रासंगिक है कि लोकतंत्र के इस चुनावी उत्सव में क्या यह मान लिया जाए कि सभी मतदाताओं की इंटरनेट मीडिया तक आसान पहुंच है? चुनाव आयोग जब बार बार अधिकाधिक मतदान की अपील करता नजर आता है तो उसका केवल यही उद्देश्य होता है कि देश और प्रदेश की सरकारों के गठन में सबका मत निहित हो। जनता की अधिक से अधिक भागीदारी के साथ चुनाव में जो जनादेश निकल कर सामने आता है वह सही मायने में समाज का उचित प्रतिनिधित्व माना जाता है। इसीलिए चुनाव के समय विभिन्न कार्यक्रमों के द्वारा अधिक से अधिक मतदान करने के लिए लोगों को जागरूक किया जाता है।
चुनाव आयोग भी इस हेतु जनजागृति के लिए तमाम तरह के कार्यक्रम आयोजित करता रहता है। वर्तमान परिवेश में चुनाव प्रचार का प्रमुख माध्यम इंटरनेट मीडिया बन चुका है तो यह भी विचारणीय हो जाता है कि क्या इसकी पहुंच ग्रामीण आबादी तक भी समान रूप से हो चुकी है। भारत गांवों का देश है। ग्रामीण परिवेश से जुड़ा भारत का एक बड़ा हिस्सा इन डिजिटल मंचों के उपयोग से कटा हुआ है। बहुतेरे लोग तो ऐसे हैं जिनके पास मोबाइल फोन नहीं है। एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो इन डिजिटल तकनीक से अनभिज्ञ है और इसके मायने उनके लिए दूर की कौड़ी सरीखा है। लिहाजा ग्रामीण क्षेत्रों में इंटरनेट मीडिया का कम इस्तेमाल होने से यहां पार्टियों का प्रचार-प्रसार उस अनुपात में नहीं हो पा रहा है जितना शहरी लोगों के मध्य हो पाता है। इससे जनादेश प्रभावित हो सकता है।